सफेद दाग

श्वेत कुष्ठ

प्रकृति संरक्षण को समर्पित एकमात्र पत्रिका आम आदमी की भाषा मेंपर्यावरण संरक्षणगाय से श्वेत कुष्ठ का इलाज

वैद्यक चिकित्सा पद्धति भारतीय चिकित्सा पद्धति की प्राचीन चिकित्सा पद्धति है। अंग्रेजी दवाओं के कारण यह चिकित्सा पद्धति कुछ पिछड़ सी गई थी, किन्तु अब पुनः लोग इसके महत्व को समझने लगे हैं। वैद्यक चिकित्सा पद्धति की पुरानी पुस्तकों में त्वचा पर सफेद धब्बों को श्वेत कुष्ठ की संज्ञा दी गई है। किन्तु आनुवंशिक विज्ञान (जेनेटिक्स) में हुए शोधकार्यों से श्वेत कुष्ठ के सम्बन्ध में जो वैज्ञानिक तथ्य उभर कर सामने आया है, वह यह कि श्वेत कुष्ठ आनुवंशिक रोग है। त्वचा के मूल रंग के लिए एक विशेष जीन जिम्मेदार होता है और जब इस विशेष जीन में एकाएक परिवर्तन हो जाता है, तो उसे उत्परिवर्तन कहते हैं। उत्परिवर्तन के कारण त्वचा श्वेत हो जाती है। वास्तव में श्वेतकुष्ठ रोग नहीं है। श्वेत कुष्ठ संक्रामक भी नहीं होता है। यह जानकारी अब आम हो गई है। फिर भी जनमानस में श्वेतकुष्ठ के प्रति जो घृणा का भाव उत्पन्न होता है और उसके सम्पर्क में आने से बचने का प्रयास एक सहज भावना है। यहाॅं मैं श्वेत कुष्ठ रोग से संबंधित घटी एक घटना का उल्लेख करना चाहॅंूगा। घटना वर्ष 2007 की है।
गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण नामक पत्रिका (मार्च 2013) के एक लेख में एक सज्जन को श्वेत कुष्ठ होने और गाय द्वारा उसके उपचार का उल्लेख था। उन सज्जन ने काफी इलाज कराया पर सफेद दाग ठीक नहीं हुआ। जब लोग उन्हें घृणा से देखते थे तो उन्हें आत्मग्लानि होती थी। जब यह बात उनके मित्र घनश्याम शरण श्रीवास्तव को ज्ञात हुई तो श्रीवास्तव जी ने उन्हें सलाह दी कि वे एक नाद घर के बाहर स्थापित करें और उसमें पानी भरकर रखें। जब गायें नाम से पानी पीकर चली जाएं तो उसकी नाद के पानी से एक गिलास पानी निकाल कर पी लें और उसी नाद के पानी से स्नान भी करें। ऐसा प्रतिदिन करें। ऐसा करने के बाद रोगी को मात्र तीसरे दिन से ही लाभ प्राप्त होना शुरू हो गया। 30 दिनों तक नाद का पानी पीने और नाद के पानी से स्नान करने से चमत्कार हो गया। सफेद दाग (श्वेत कुष्ठ) मिट गए। डाॅक्टरों से जांच कराने पर पता चला कि रोगी का श्वेत कुष्ठ रोग ठीक हो गया है। भारत में गाय को गोमाता कहते हैं। गाय के दूध को अमृत की संज्ञा दी गई है। गाय के गोबर और गोमूत्र के अनेक उपयोग हैं। किन्तु गाय के जीभ या लार पर शोध की आवश्यकता है। अब समय आ गया है कि हमें गोपालन पर पुनः गंभीरता से न केवल विचार करना होगा, वरन उसे कार्य रूप में परिणित भी करना होगा। यही नहीं, हमें आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर गाय के उत्पादों पर पुनः गहन शोध भी करना होगा और साथ ही गोवंश की संख्या को बढ़ाना भी होगा।

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